ईरान ने होर्मुज जलडमरूमध्य को किया अवरुद्ध: भारत, ईरान और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में इसके मायने

2025 में पहली बार ईरान ने वह निर्णय लिया है जो दशकों तक उसने टाल रखा था—होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने का फैसला। जबकि अतीत में कोई भी सैन्य संघर्ष या युद्ध इस कदम तक नहीं पहुंचा, सवाल यह है कि अब ईरान ऐसा करने को क्यों मजबूर हुआ? और यह कदम दुनिया के लिए इतना खतरनाक क्यों है?


भारत पर क्या असर होगा?

भारत जैसे तेल-आयातक देशों के लिए यह निर्णय किसी झटके से कम नहीं है। ईरान की संसद द्वारा पारित प्रस्ताव के अनुसार जलडमरूमध्य को बंद किया जा सकता है, हालांकि अंतिम फैसला अभी सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को लेना है। यह खबर 22 जून को ईरान के प्रेस टीवी द्वारा जारी की गई।


क्या अमेरिका की कार्रवाई ने हालात बदले?

रविवार को अमेरिका ने ईरान के तीन सैन्य अड्डों पर हमला किया, जिससे हालात और तनावपूर्ण हो गए। अब विश्लेषकों का मानना है कि ईरान का प्रतिकारात्मक विकल्पों में सबसे अहम कदम हो सकता है—होर्मुज जलडमरूमध्य को अवरुद्ध करना। जहां पहले तक ज़्यादातर जानकारों को लगता था कि ईरान यह कदम नहीं उठाएगा, अब यह संभावना अधिक वास्तविक प्रतीत हो रही है।


ईरान के विदेश मंत्री और अमेरिका की प्रतिक्रिया

जब विदेश मंत्री सईद अब्बास अरागची से इस संदर्भ में सवाल पूछा गया, तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “ईरान के पास कई जवाबी विकल्प हैं।” उधर, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने चीन से अपील की कि वह तेहरान पर दबाव बनाए ताकि वह यह कदम न उठाए, क्योंकि खुद चीन की ऊर्जा ज़रूरतें इस मार्ग पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं। रुबियो ने चेताया कि अगर ईरान ऐसा करता है तो यह “उनके लिए आर्थिक आत्मघात” साबित हो सकता है।


होर्मुज जलडमरूमध्य का भूगोल और उसका महत्व

जलडमरूमध्य का अर्थ होता है—दो समुद्रों को जोड़ने वाली एक पतली जलधारा। होर्मुज जलडमरूमध्य फारस की खाड़ी को ओमान की खाड़ी से जोड़ता है, जो आगे अरब सागर से मिलती है। ईरान, सऊदी अरब, और यूएई जैसे खाड़ी क्षेत्र के तेल उत्पादक देश इसी मार्ग से अपने कच्चे तेल को अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंचाते हैं।

इस जलडमरूमध्य की चौड़ाई अधिक नहीं है—सिर्फ़ 33 किलोमीटर और जहाजों की आवाजाही के लिए उपयोगी लेन केवल 3 किलोमीटर चौड़ी है। यही कारण है कि यहां से गुजरने वाले टैंकरों को रोकना या उन पर हमले करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।


यह रास्ता क्यों इतना संवेदनशील और महत्वपूर्ण है?

उत्तर है—तेल और गैस। अमेरिकी ऊर्जा सूचना प्रशासन (EIA) के अनुसार, 2024 और 2025 की पहली तिमाही में होर्मुज जलडमरूमध्य से गुजरने वाला तेल वैश्विक समुद्री तेल व्यापार का 25% से भी अधिक था, जबकि दुनिया की कुल तेल खपत का लगभग पांचवां हिस्सा इसी मार्ग पर निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त, लगभग 20% वैश्विक LNG व्यापार (मुख्य रूप से कतर से) इसी जलडमरूमध्य से होता है।

यह एकमात्र समुद्री मार्ग है, जिससे इस क्षेत्र का तेल खुली दुनिया में पहुंच सकता है। इसके अवरुद्ध होते ही वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो सकती है, जिससे तेल और गैस की कीमतें बढ़ेंगी और इसके साथ ही अन्य वस्तुओं की लागत भी प्रभावित होगी।


क्या हो सकता है विकल्प?

इसका विकल्प यह है कि तेल को पाइपलाइन के माध्यम से अन्य मार्गों तक पहुंचाया जाए। उदाहरण के लिए:

  • सऊदी अरब की अरामको कंपनी की एक पाइपलाइन (5 मिलियन बैरल/दिन) फारस की खाड़ी से लाल सागर के यानबू बंदरगाह तक जाती है।

  • यूएई की एक पाइपलाइन (1.8 मिलियन बैरल/दिन) ओमान की खाड़ी के फुजैरा टर्मिनल तक पहुंचती है।

जबकि होर्मुज जलडमरूमध्य से 2024 में प्रतिदिन 20 मिलियन बैरल तेल बहता था—जो कि विकल्पों की तुलना में कई गुना अधिक है। इसलिए यह मार्ग अनिवार्य बन जाता है।


अगर बंद हो गया, तो होगा क्या?

यदि इस मार्ग को बंद किया जाता है, तो जहाजों पर हमलों का खतरा बढ़ जाएगा, समुद्र में बारूदी सुरंगें बिछाई जा सकती हैं, मिसाइल हमले हो सकते हैं, या साइबर हमलों के ज़रिए भी नेविगेशन में बाधा डाली जा सकती है। इससे बीमा, सुरक्षा और लॉजिस्टिक्स की लागत तेज़ी से बढ़ेगी।


क्या ईरान वास्तव में इसे बंद करेगा?

इतिहास बताता है कि ईरान ने अब तक कभी भी इस जलमार्ग को पूरी तरह अवरुद्ध नहीं किया है। यहां तक कि 1980 के ईरान-इराक युद्ध के समय भी दोनों पक्षों ने जहाजों पर हमले किए, लेकिन यातायात को पूरी तरह रोका नहीं गया।

इसका कारण स्पष्ट है—ईरान की अपनी तेल बिक्री भी इसी जलडमरूमध्य पर निर्भर करती है। चीन, जो ईरानी तेल का प्रमुख ग्राहक है, को यह मार्ग चाहिए। अगर बाधा आती है, तो चीन की ऊर्जा सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है।


निष्कर्ष: संकेत या संकट?

ईरान का यह कदम अधिकतर एक रणनीतिक संदेश हो सकता है। लेकिन अगर यह क्रियान्वित होता है, तो इसका प्रभाव केवल अमेरिका या खाड़ी देशों तक सीमित नहीं रहेगा—बल्कि भारत जैसे ऊर्जा-आयातक देशों की आर्थिक स्थिरता पर भी गहरा असर पड़ेगा।

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"Lakshya IAS"

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